कोहरे सी धुंधली इस भोर मे
मेरा मन कण–कण हो
बिखर रहा है
कहीं दूर तालाब में खिले
कमल–पुष्पों की कसैली सुगंध
चेतना को उकसा रही हैं
हिरणों की तरह भागते–भागते
मन
इस जंगल के किस छोर तक
चला आया है?
और तन
कहीं पीछे‚ किसी भीड़ भरे शहर में
लहुलुहान पड़ा है
कब तक रोऊं उस आहत पर
मुझे तो और आगे जाना है
कलरवित कुंजों
बांस के पेड़ों से घिरी उस चट्टान तक
जहां चिरकाल से‚
मेरा माधव बांसुरी बजा रहा है
उसे प्रतीक्षा है मेरी
मेरे संपूर्ण अस्तित्व की
भावुक मन और अक्षत तन की भी
झिझकती हूं
मैं तो नितान्त हृदय हूं
कोरी आत्मा
महज एक गन्ध
स्वर लहरियों में बहकर
यहां तक आ पहुंची हूं
क्या वह पहचान सकेगा मुझे?
कविताएँ
बिखरे पुष्प की गंध
आज का विचार
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।
आज का शब्द
समानता Women’s Day advocates gender parity. महिला दिवस लैंगिक समानता की वकालत करता है।