हर बार तुम मुझे
एक नई तरह से परिभाषित करते हो
प्रेयसी‚ अभिन्न‚ माया
तुम्हारे प्रेम की पराकाष्ठा
होती है
जब तुम मुझे अराध्य देवी मान
मेरे हर रूप को शोभनीय कहते हो‚
मगर मैं‚
अपने तुच्छ‚ अकिंचन से
बाहर ही नहीं निकल पाती।
मैं तुम्हारे इस अनोखे प्रेम की
दर्शन और धर्म सम्बंधी व्याख्याओं
में उलझ कर रह जाती हूँ
मैं डरती हूँ
प्रेम को महान बनाने में’
कहीं मैं बिखर कर
न रह जाउं
फिर मैं यही सोचती हूँ
कि
तुम्हारे हाथ से गिर कर
चूर–चूर होने में ही
मेरे प्रेम से भरे
हृदय का सौभाग्य है।

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