तुम्हारे मेरे बीच की वे
परामस्तिष्क तरंगें छिन्न–भिन्न हो गई हैं
कोई सम्वेदन अब संचरित नहीं होता हैं
एक लम्बा पॉज़ रह गया है।
जानती हूँ कँपकँपाता होगा अतीत
सामने वाले पतझड़ के बाद
ठूँठ हुए वृक्ष पर
एक अकेले सहमे पत्ते सा
तुम एक पल को तरल हो
मूंद लेते होगे आँखें
फिर उन्हें खोल
अतीत अनदेखा कर
चल देते होगे
कटु वर्तमान और अजाने भविष्य के
बीच वाले रास्ते पर
तुमने हमेशा बीच के रास्ते ही चुनें हैं।
लेकिन मैं आज भी
इस कंटीली पगडंडी को तज न सकी
और मेरे भीतर
एक पत्ता या वृक्ष नहीं
अतीत का पूरा जंगल जलता है
उन पलों का वेग बहा ले जाता है वहीं‚
जहाँ नहरों के किनारे
पलाश के जंगल धधकते थे।

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